Monday, April 25, 2011

For Gulzar Sahab

गुलज़ार साहब के हाथ से कलम गिर गयी,
कुच्छ कविताएँ ज़मीन पर बिखर गयी ||

Colorless ink

सुबह सुबह चिड़िया का चहकना,
पतझड़ में सूखे पत्तों पे नंगे पैर चलना,
आसमान को ताकते विशाल समंदर-
पे धीरे धीरे आँखें मून्दता सूरज,
गाँव के बाहर खेतों में-
पीली सरसों पे अलसाता बसंत,
आँगन में सावन की रिमझिम,
उसके पैरों की पायल की छम छम |

अब अपना आकर्षण खो चुकी है |

चलते चलते बहुत दूर आ गया हूँ,
पीछे मुड़ के देखने की अब हिम्मत नहीं है,
कि कहाँ रास्ता भटका हूँ |

दूर कहीं सितारों में जहाँ राग रागिनी बनती होगी,
शायद कोई एक रोशनी की किरण का इंतेजार,
अब डरावना सा लगता है |

अंधेरा रोशनी का पता पूछने चल पड़ा,
अच्छा हुआ रास्ता भटक गया |


चलना मुसाफिर का मुक़द्दर है,
मंज़िल नहीं |
मंज़िल की परिभाषा तो अब,
अर्थहीन सी हो लगती है |